Wednesday, November 4, 2009

आशातीत मन की प्रतिक्रिया

देख रही हैं आँखें -
यूँ सूरज का उगना , ढलना
चँद्रमा का लुकना , छिपना
दिनों का घटना , बढ़ना
- मौन , अक्रिय, उदासीन .

क्यूँ झेल नहीं पाती फिर भी –
कष्ट का आना , जाना
हँसी का खिलना , मुरझाना
विश्वास का खोना , पाना .

---- क्या यही है आशा का जलना बुझना ?

2 comments:

के सी said...

बस अभी अपने ब्लॉग का पेज रिफ्रेश किया तो ब्लॉग सूची में आपका नाम दिखाई दिया.
ख़ुशी - आप आई
शिकायत - इतने दिनों के बाद.

कविता बहुत सुंदर, कम शब्दों में गहरी बात है.
थोड़ा सा समय ब्लॉग को दिया करें, प्रतीक्षा बनी रहती है.

Anonymous said...

bahut kuch bataa rhi hai ye kavita ma'am... jo aap kah kar bhi nhi kah paate wo kavita kah gai...

likhti rahiyega... ham sunte rahege..


saadar

Page copy protected against web site content infringement by Copyscape