एक सफ़र किया टूटते दरख्तो के बीच,
कराहों से सजे मंज़र, पीले पत्ते,मुरझाए फूल
बौराई टहनियों से टपकते आँसू, नीचे दरकती ज़मीन,
अंदर उमड़ते तूफान, उपर से मौन पड़े हैं, गमगीन
दुख से चुप ना थे, अवाक खड़े थे मुह खोल,
ये क्या हुआ ? – प्रश्नचिन्ह लगा रहे नज़रों से
भयंकर दावानल था या कोई भीषण बवंडर
हरियाली खाक हो गयी, खोखले हुए सब अंदर
ओठ खुलते हैं तो सिर्फ़ आह निकलती है,
बंद करने पर सिसकी क्यों सुनाई देती है,
दिलों पर भस्म जमी है, क्या साधु हैं ये,
कोटरों में जीव नहीं है, हवा भी दम साधे है
हड्डियों की चटकं में उम्र का ज़ोर भी है,
वक़्त से पहले पौधों को सख़्त बनाने का शोर भी है
पहचान लुप्त हो गयी खुद की, एक दूसरे की,
खोखली निगाह डालते हैं, खोए को तलाशें भी
दिल जो बेजान हुए, मुह से आवाज़ लापता है,
सूखे फूलों से ढका गुज़रता एक काला रास्ता है,
खुद को जलाकर जो रोशन करते हैं अंधेरा, अजीब,
एक सफ़र किया ऐसे टूटते दरख्तो के बीच
3 comments:
सुंदर रचना , बहुत पसंद आई
अति सुन्दर !! कॉलेज में तो कभी तुमने कोई कविता नहीं सुनाई
बहुत अच्छा लिखा है आपने
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